= नाम,ख्याति एवं मान प्रतिष्ठा के लिए दिया गया दान धर्म के अंतर्गत नहीं आता और न ही वह संसार विच्छेदक होता है.
-एलाचार्य श्री वसुनंदी जी मुनिराज
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कविवर गुरुवर मुनिप्रवर, वसुनन्दीजी संत
चरण कमल में आपके नमन अनंतानंत
विद्यानंदजी के शिष्य है,श्रमणों के सरताज
वसुनन्दीजी मम गुरु ,तारण तरण जहाज़
- सोनिया जैन, मथुरा
संतों का कर्त्तव्य
ReplyDelete"जब तक पर पदार्थों से सुख प्राप्ति की धारणा मन में विद्यमान हैं, तब तक उस व्यक्ति को पर पदार्थों के संग्रह से कोई नहीं रोक सकता.
यदि उसे बाहरी पदार्थ संग्रह हेतु नहीं भी मिले,तब भी वह अपने अन्तरंग में उन पदार्थों का ढेर लगायेगा जिन पदार्थों की प्राप्त से सुख की धारणा बना चूका है.
अतः आज परिग्रह के त्याग की आवश्यकता कम है, उसे सद्ज्ञान ,सद्बुद्धि की ज्यादा आवश्यकता है,उसे मोहि प्राणी की मिथ्या धारणा को तोडना बहुत आवश्यक है.
आज संतों का अनिवार्य कर्त्तव्य यही है कि वह भव्य जीवों के लिए आत्म कल्याण का उपदेश दें."
-एलाचार्य वसुनंदी जी मुनिराज की कृति "मीठे प्रवचन 1" से