भद्रबाहु स्वामी के समय में बारह वर्ष का महा दुर्भिक्ष पड़ा था और इसी समय से स्मरण शक्ति कमजोर होना प्रारंभ हो गई थी.आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी (४३३ब्क-३५७ब्क) की परंपरा में दो महँ आचार्य हुए-आचार्य धरसेन और आचार्य गुणधर. आचार्य धरसेन गिरनार की गुफाओं में रहा करते थे. अभी तक समस्त ज्ञान स्मरण किया जाता था और इसी प्रकार से सिखाया भी जाता था लेकिन आचार्य धरसेन से देखा कि समर शक्ति कमजोर होने लगी है जिसके चलते ज्ञान का आभाव न हो जायेगा जो कुल मिलाकर धर्म की हानी ही करेगा. तब उन्होंने दो योग्य संतों को दक्षिण भारत से बुलवाया जिनका नाम पुष्पदंत और भूतबली था. आचार्य धरसेन ने उनकी परीक्षा के लिए एक ही मंत्र में एक अक्षर ज्यादा और एक अक्षर कम करके सिद्ध करने को कहा.जब दोने संतों ने
इस मंत्र का ध्यान किया तो दो देविया प्रकट हुई जिसमे एक देवी
कानी और एक देवी के दन्त बहार थे.इसे देख दोनों मुनि समझ गए की मन्त्र में अशुद्धि है तब उन दोनों ने उसे शुद्ध कर पुनह उसे सिद्ध किया तब वे देविया अपने सही रूप में उपस्थित हुई.उस सही मन्त्र को लेकर दोनों मुनि आचार्य धरसेन के पास गए जिसे देख कर आचार्य श्री समझ गए की ये दोनों मुनि ही योग्य है जिन्हें श्रुत का ज्ञान कराना उचित होगा.आचार्य धरसेन ने उन्हें समस्त श्रुत का ज्ञान प्रदान किया जिसे दोनों योग्य मुनियों ने ग्रहण कर प्रथम श्रुतखंड की रचना की और नाम दिया "षटखंडागम". इस ग्रन्थ की रचना ज्येष्ठ सुदी पंचमी को अंकलेश्वर में संपन्न हुई जिस दिन को हम श्रुत पंचमी पर्व के रूप में मानते हैं.इस ग्रन्थ का मंगलाचरण णमोकार मंत्र से किया गया है.प्रथम खंड की रचना पुष्पदंत आचार्य ने की शेष रचना भूतबली आचार्य ने पूर्ण की. इसी ग्रन्थ के आधार पर अनेको शास्त्रों की रचना हुई और अनेको प्राचीन आचार्यों ने अपने विचार और अनुभवों को वर्तमान श्रावकों के लिए संजोया जिन्हें आज हम शास्त्रों के रूप में अध्यन करते हैं.तभी से लिखित ज्ञान का प्रारंभ हुआ जो वर्तमान काल में एक प्रबुद्ध व ठोस माध्यम है प्रचार प्रसार एवं कार्य शैली का.
उपरोक्त कहानी से आप समझ गए होंगे कि जैन शास्त्र की महत्ता क्या है.आप इन शास्त्रों का स्वाध्याय निरंतर करे यदि आप भी कुछ जिनशासन के लिए कुछ करना चाहते हैं.माँ जिनवाणी की जय.
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