सुदृष्टि सुनार की कथा
इधर विमला के लड़के को भी अत्यंत वैराग्य हुआ। वह स्वर्ग मोक्ष के सुखों को देने वाली जिन दीक्षा लेकर योगी बन गया। यहाँ से फिर यह शुद्धात्मा धर्मोपदेश के लिए अनेक और शहरों में घूम फिर का तपस्या करता हुआ और अनेक भाव्यजनों को आत्महित के लिए लगाता हुआ सौरिपुर के उत्तर भाग में यमुना के पवित्र किनारे पर आकर ठहरा। यहाँ शुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर इसने लोकालोक का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अंत में मुक्ति लाभ लिया। वे विमला-सुत मुनि मुझे शांति दें।
वे जिनभगवान आप भव्यजनों को और मुझे मोक्ष का सुख दें, जो संसार सिन्धु में डूबते हुए, असहाय-निराधार जीवों को पार कराने वाले हैं, कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, संसार के सब पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञान से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले हैं और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि प्रायः सभी महापुरुषों से पूजा किये जाते हैं।
पाँच सौ मुनियों की कथा
जिनेन्द्र भगवन के चरणों को नमस्कार कर पांच सौ मुनियों पर एक साथ बीतने वाली घटना का हाल लिखा जाता है, जो कल्याण का कारण है।
भरत क्षेत्र के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकारकट नाम के पुराने शहर के राजा का नाम दंडक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था। सुव्रता रूपवती और विदुषी थी। राजमंत्री का नाम बालक था। यह पापी जैनधर्म से बड़ा द्वेष रखा करता था। एक दिन इस शहर में पांच सौ मुनियों का संघ आया। बालक मंत्री को अपनी पंडिताई पर बड़ा अभिमान था। सो वह शास्त्रार्थ करने के लिए मुनि संघ के आचार्य के पास जा रहा था। रस्ते में इसे एक खंडक नाम के मुनि मिल गए। सो उन्ही से आप झगडा करने को बैठ गया और लगा अंटसंट बकने। तब मुनि ने इसकी युक्तियों का अच्छी तरह खंडन कर स्यादवाद सिद्धांत का इस शैली से प्रतिपादन किया कि बालक मंत्री का मुंह बंद हो गया, उनके सामने फिर उससे कुछ बोलते न बना। तब उसे लज्जित होकर लौट आना पड़ा। इस अपमान की आग उसके हृदय में खूब धधकी। उसने तब इसका बदला चुकाने की ठानी। इसके लिए उसने यह युक्ति की कि एक भांड को छल से मुनि बनाकर सुव्रता रानी के महल में भेजा। यह भांड रानी के पास जाकर उससे भला-बुरा हंसी मजाक करने लगा। इधर उसने ये सब लीला राजा को भी बतला दी और कहा- महाराज, आप इन लोगों की भक्ति करते है, सदा इनकी सेवा में लगे रहते हैं, तो क्या यह सब इसी दिन के लिए है? जरा आंखें खोलकर देखिये कि सामने क्या हो रहा है? उस भांड की लीला देखकर मूर्खराज दंडक के क्रोध का कुछ पार न रहा। क्रोध से अँधा होकर उसने उसी समय हुक्म दिया कि जितने मुनि इस समय मेरे शहर में मौजूद हों, उन सबको घानी में पेल दिया जाये। पापी मंत्री तो इसी पर मुँह धोये बैठा था। सो राजाज्ञा होते ही उसने पलभर का विलम्ब करना उचित न समझ मुनियों को पेले जाने की व्यवस्था फ़ौरन जुटा दी। देखते-देखते वे सब मुनि घानी में पेल दिए गए। बदला लेकर बालक मंत्री की आत्मा सन्तुष्ट हुई। सच है, जो पापी होते हैं, जिन्हें दुर्गतियों में दुःख भोगना है, वे मिथ्यात्वी लोग भयंकर पाप करने में जरा भी नही हिचकते। चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में भी क्यों न कष्ट सहना पड़े। जो हो, मुनिसंघ पर इस समय बड़ा ही घोर और दुसह उपद्रव हुआ। पर वे साहसी धन्य हैं, जिन्होंने जबान से चूं तक न निकल कर सब कुछ साहस के साथ सह लिया। जीवन की इस अंतिम कसौटी पर वे खूब तेजस्वी उतरे। उन मुनियों ने शुक्लध्यान रुपी अपनी महान आत्मशक्ति से कर्मों का, जोकि आत्मा के पक्के दुश्मन हैं, नाश कर मोक्ष लाभ लिया।
दिपते हुए सुमेरु के समान स्थिर, कर रुपी मैल को, जो कि आत्मा को मलिन करने वाला है, नाश करने वाले और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों, राजा और महाराजो द्वारा पूजा किये गए जिन मुनिराजों ने संसार का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया, वे मेरा भी संसार-भ्रमण मिटावें।
देवों, विद्याधरों ,चक्रवर्तियों,राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किये जाने वाले जिन भगवान को नमस्कार कर सुदृष्टि नामक सुनार की, जो रत्नों के काम में बड़ा होशियार था, कथा लिखी जाती है।
उज्जैन के राजा प्रजापाल बड़े प्रजाहितैषी, धर्मात्मा और भगवान के सच्चे भक्त थे। इसकी रानी का नाम सुप्रभा था। सुप्रभा बड़ी सुंदर और सति थी। सच है,संसार में वही रूप और सौंदर्य प्रशंसा के लायक होता है जो शील से भूषित हो।
यहाँ एक सुदृष्टि नाम का सुनार रहता था। जवाहरात के काम में यह बड़ा चतुर था तथा सदाचारी और सरल-स्वाभावी था। इसकी स्त्री का नाम विमला था। विमला दुराचारिणी थी। अपने घर में रहने वाले एक वक्र नाम के विद्यार्थी से, जिसे कि सुदृष्टि अपने खर्च से लिखाता-पढाता था, विमला का अनुचित सम्बन्ध था। विमला अपने स्वामी से बहुत ना-खुश थी। इसीलिए उसने अपने प्रेमी वक्र को उकसा कर, उसे कुछ भली-बुरी सुझाकर सुदृष्टि का खून करवा दिया। खून उस समय किया गया जब कि सुदृष्टि विषय-सेवन में मग्न था। सो यह मरकर विमला के गर्भ में ही आया।विमला ने कुछ दिनों बाद पुत्र प्रसव किया। आचार्य कहते है कि संसार की स्थिति बड़ी ही विचित्र है जो पल भर में रूप बदला ही करते है।
चैत का महिना था बसंत शोभा ने सब ओर अपना साम्राज्य स्थापित का रखा था। वन उपवनों की शोभा मन को मोह लेती थी। इसी सुंदर समय में एक दिन महारानी सुप्रभा अपने ख़ास बगीचे में अपने प्राण नाथ के साथ हंसी विनोद का रही थी। इसी हंसी विनोद में उसका क्रीड़ा विलास नाम का सुंदर बहुमूल्य हार टूट पड़ा। उसके सब रत्न बिखर गए। राजा ने उसे फिर वैसा ही बनवाने का बहुत यत्न किया, जगह जगह से अच्छे सुनार बुलवाए पर हार पहले जैसा सा किसी से नहीं बना।सच है, बिना पुण्य के कोई उत्तम कला का ज्ञान नहीं होता। इसी टूटे हुए हार को विमला के लड़के ने अर्थात पूर्वभव के उसके पति सुदृष्टि ने देखा। देखते ही उसे जाति स्मरण पूर्व जन्म का ज्ञान हो गया। उसने उस हार को पहले जैसा बना दिया। इसका कारण यह था कि इस हार को पहले भी सुदृष्टि ने बनाया था और यह बात सच है कि इस जीव को पूर्व जन्म के संस्कार पुण्य से ही कला कौशल, ज्ञान विज्ञानं दान-पूजा आदि बातें प्राप्त हुआ करती हैं। प्रजापाल उसकी यह होशियारी देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे पूछा कि भाई, यह हार जैसा सुदृष्टि ने ही बनाया था वैसा ही तुमने कैसे बना दिया? तब वह विमला का लड़का मुंह नीचा कर बोल- राजाधिराज, मैं अपनी कथा क्या कहूँ। आप यह समझें कि वास्तव में मैं ही सुदृष्टि हूँ। इसके बाद उसने बीती हुई सब घटना राजा से कह सुनाई। वे संसार की इस विचित्रता को सुनकर विषय-भोगों से बड़े विरक्त हुए। उन्होंने उसी समय सब माया जाल छोड़कर आत्महित का पथ जिन दीक्षा ग्रहण कर ली।इधर विमला के लड़के को भी अत्यंत वैराग्य हुआ। वह स्वर्ग मोक्ष के सुखों को देने वाली जिन दीक्षा लेकर योगी बन गया। यहाँ से फिर यह शुद्धात्मा धर्मोपदेश के लिए अनेक और शहरों में घूम फिर का तपस्या करता हुआ और अनेक भाव्यजनों को आत्महित के लिए लगाता हुआ सौरिपुर के उत्तर भाग में यमुना के पवित्र किनारे पर आकर ठहरा। यहाँ शुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर इसने लोकालोक का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अंत में मुक्ति लाभ लिया। वे विमला-सुत मुनि मुझे शांति दें।
वे जिनभगवान आप भव्यजनों को और मुझे मोक्ष का सुख दें, जो संसार सिन्धु में डूबते हुए, असहाय-निराधार जीवों को पार कराने वाले हैं, कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, संसार के सब पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञान से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले हैं और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि प्रायः सभी महापुरुषों से पूजा किये जाते हैं।
पाँच सौ मुनियों की कथा
जिनेन्द्र भगवन के चरणों को नमस्कार कर पांच सौ मुनियों पर एक साथ बीतने वाली घटना का हाल लिखा जाता है, जो कल्याण का कारण है।
भरत क्षेत्र के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकारकट नाम के पुराने शहर के राजा का नाम दंडक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था। सुव्रता रूपवती और विदुषी थी। राजमंत्री का नाम बालक था। यह पापी जैनधर्म से बड़ा द्वेष रखा करता था। एक दिन इस शहर में पांच सौ मुनियों का संघ आया। बालक मंत्री को अपनी पंडिताई पर बड़ा अभिमान था। सो वह शास्त्रार्थ करने के लिए मुनि संघ के आचार्य के पास जा रहा था। रस्ते में इसे एक खंडक नाम के मुनि मिल गए। सो उन्ही से आप झगडा करने को बैठ गया और लगा अंटसंट बकने। तब मुनि ने इसकी युक्तियों का अच्छी तरह खंडन कर स्यादवाद सिद्धांत का इस शैली से प्रतिपादन किया कि बालक मंत्री का मुंह बंद हो गया, उनके सामने फिर उससे कुछ बोलते न बना। तब उसे लज्जित होकर लौट आना पड़ा। इस अपमान की आग उसके हृदय में खूब धधकी। उसने तब इसका बदला चुकाने की ठानी। इसके लिए उसने यह युक्ति की कि एक भांड को छल से मुनि बनाकर सुव्रता रानी के महल में भेजा। यह भांड रानी के पास जाकर उससे भला-बुरा हंसी मजाक करने लगा। इधर उसने ये सब लीला राजा को भी बतला दी और कहा- महाराज, आप इन लोगों की भक्ति करते है, सदा इनकी सेवा में लगे रहते हैं, तो क्या यह सब इसी दिन के लिए है? जरा आंखें खोलकर देखिये कि सामने क्या हो रहा है? उस भांड की लीला देखकर मूर्खराज दंडक के क्रोध का कुछ पार न रहा। क्रोध से अँधा होकर उसने उसी समय हुक्म दिया कि जितने मुनि इस समय मेरे शहर में मौजूद हों, उन सबको घानी में पेल दिया जाये। पापी मंत्री तो इसी पर मुँह धोये बैठा था। सो राजाज्ञा होते ही उसने पलभर का विलम्ब करना उचित न समझ मुनियों को पेले जाने की व्यवस्था फ़ौरन जुटा दी। देखते-देखते वे सब मुनि घानी में पेल दिए गए। बदला लेकर बालक मंत्री की आत्मा सन्तुष्ट हुई। सच है, जो पापी होते हैं, जिन्हें दुर्गतियों में दुःख भोगना है, वे मिथ्यात्वी लोग भयंकर पाप करने में जरा भी नही हिचकते। चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में भी क्यों न कष्ट सहना पड़े। जो हो, मुनिसंघ पर इस समय बड़ा ही घोर और दुसह उपद्रव हुआ। पर वे साहसी धन्य हैं, जिन्होंने जबान से चूं तक न निकल कर सब कुछ साहस के साथ सह लिया। जीवन की इस अंतिम कसौटी पर वे खूब तेजस्वी उतरे। उन मुनियों ने शुक्लध्यान रुपी अपनी महान आत्मशक्ति से कर्मों का, जोकि आत्मा के पक्के दुश्मन हैं, नाश कर मोक्ष लाभ लिया।
दिपते हुए सुमेरु के समान स्थिर, कर रुपी मैल को, जो कि आत्मा को मलिन करने वाला है, नाश करने वाले और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों, राजा और महाराजो द्वारा पूजा किये गए जिन मुनिराजों ने संसार का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया, वे मेरा भी संसार-भ्रमण मिटावें।
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